मोहब्बतों में जो मिट मिट के शाहकार हुआ वो शख़्स कितना ज़माने में यादगार हुआ तिरी ही आस में गुज़रे हैं धूप छाँव से हम तिरी ही प्यास में सहरा भी ख़ुश-गवार हुआ न जाने कितनी बहारों की दे गया ख़ुशबू वो इक बदन जो हमारे गले का हार हुआ तुम्हारे बाद तो हर इक क़दम है बन-बास हमारा शहर के लोगों में कब शुमार हुआ ख़ुद अपने आप से लेना था इंतिक़ाम मुझे मैं अपने हाथ के पत्थर से संगसार हुआ ये एक जान भी लेता है 'अश्क' क़िस्तों में ज़रा सा काम भी उस से न एक बार हुआ