तरक़्क़ी का वो दा'वा कर रहा है मगर हर शख़्स फ़ाक़ा कर रहा है वो देखे है मकानात-ए-बुलंदी वो उजड़े घर से पर्दा कर रहा है मफ़ाद-ए-अव्वलिय्यत चाहने में वो इंसानों का सौदा कर रहा है बराबर में कमी बेशी को रख कर तरक़्क़ी का इरादा कर रहा है दुहाई दे के वो जम्हूरियत की निज़ाम-ए-ख़्वाब रुस्वा कर रहा है हुए हुक्काम अब सारे लुटेरे दिल-ए-हालात नाला कर रहा है