निगार-ए-फ़न पे हरीफ़ान-ए-शे'र की यलग़ार नियाम-ए-हर्फ़ कहाँ है ख़याल की तलवार रहीन-ए-मर्ग-ए-तमन्ना थी कामरानी-ए-वस्ल झुलस गया है मुझे क़ुर्बा-ए-शो'ला-ए-रुख़सार हवा कुछ ऐसी चली दश्त-ए-ना-मुरादी से उजड़ के बस न सके फिर कभी दिलों के दयार कड़कती धूप में अब और किस जगह बैठूँ सिमट के बन गया दीवार साया-ए-दीवार जला गई है मिरी आग पैरहन मेरा मैं क्या गिला करूँ तुझ से चराग़-ए-महफ़िल-ए-यार ज़रा रसाई-ए-मंज़िल-गह-ए-मुराद तो देख चले थे शहर-ए-वफ़ा से पहुँच गए सर-ए-दार ये किस ने सर्द गुलिस्ताँ का ज़िक्र छेड़ा है निखर चला है निगाहों में पैकर-ए-क़द-ए-यार ये किस जज़ीरा-ए-बेरंग-ओ-बू में बस्ते हैं न ताइरान-ए-अजम हैं न आहूवान-ए-ततार ये कौन गुज़रा है 'मोहसिन' ख़राबा-ए-दिल से कि उड़ रहा है हर इक सम्त हसरतों का ग़ुबार