मोजज़े का दर खुला और इक असा रौशन हुआ दूर गहरे पानियों में रास्ता रौशन हुआ जाने कितने सूरजों का फ़ैज़ हासिल है उसे इस मुकम्मल रौशनी से जो मिला रौशन हुआ आँख वालों ने चुरा ली रौशनी सारी तो फिर एक अंधे की हथेली पर दिया रौशन हुआ एक वहशत दायरा-दर-दायरा फिरती रही एक सहरा सिलसिला-दर-सिलसिला रौशन हुआ मुस्तक़िल इक बे-यक़ीनी, इक मुसलसल इंतिज़ार फिर अचानक एक चेहरा जा-ब-जा रौशन हुआ आज फिर जलने लगे बीते हुए कुछ ख़ास पल आज फिर इक याद का आतिश-कदा रौशन हुआ जाने किस आलम में लिक्खी ये ग़ज़ल तुम ने 'नबील' ख़ामुशी बुझने लगी, शहर-ए-सदा रौशन हुआ