मुँह किस तरह से मोड़ लूँ ऐसे पयाम से मुझ को बुला रहा है वो ख़ुद अपने नाम से सोए तो सब्ज़ पैर का साया सरक गया डेरा जमा रखा था बड़े एहतिमाम से कैसे मिटा सकेगा मुझे सैल-ए-आब-ओ-गिल निस्बत है मेरे नक़्श को नक़्श-ए-दवाम से गो शहर-ए-ख़ुफ़्तगाँ में क़यामत का रन पड़ा तलवार फिर भी निकली न कोई नियाम से हाला बना रहा है तू अब उन के ज़िक्र का कब के गए वो लोग सलाम-ओ-पयाम से मैं तो असीर-ए-गर्मी-ए-बाज़ार हूँ 'रशीद' मुझ को ग़रज़ न जिंस से दरहम न दाम से