मुद्दत के बाद सोच में ग़लताँ हुआ तो क्या अपने किए पे आप ही हैराँ हुआ तो क्या इक पास-ए-रस्म था जिसे हम ने निभा दिया अब वो किए पे अपने पशेमाँ हुआ तो क्या ये सब अदाएँ हुस्न की हैं इश्क़ के लिए कितना ही पुर-फ़ुसूँ रुख़-ए-ख़ूबाँ हुआ तो क्या ये हुस्न-ए-संग भी बुत-ए-ज़ेबा के दम से है नीलम हुआ तो क्या कोई मर्जां हुआ तो क्या कुछ और भी हसीन है ख़्वाबों की धुँद में ज़ाहिर हुआ तो क्या कोई पिन्हाँ हुआ तो क्या हसरत है शहर-ए-यार में मरना नसीब हो जगमग हुआ तो क्या हुआ वीराँ हुआ तो क्या