मुँह में जिस के तू शब-ए-वस्ल ज़बाँ देता है सुब्ह तक मारे मज़े ही के वो जाँ देता है बोसा देने को तो कहता है वो मुझ से लेकिन मैं जो चाहूँ कि अभी दे सो कहाँ देता है नाक़ा-गर गुम न करे राह तो ख़ुद रेग-ए-रवाँ उस्तुख़्वाँ रेज़ा-ए-मजनूँ का निशाँ देता है सुब्ह-ख़ेज़ों को भी मौत आ गई क्या हिज्र की शब मुर्ग़ बोले है न मुल्ला ही अज़ाँ देता है कुछ तो जगह है मिरी दिल में भी उस के वर्ना ग़ैरों को यूँ कोई पहलू में मकाँ देता है दिल ओ जाँ मुझ से वो माँगे है बहा-ए-बोसा है तो सौदा बहुत अच्छा पे गिराँ देता है ये दम-ए-सर्द है किस का कि हर इक नख़्ल-ब-बाग़ याद-ए-बे-बरगी-ए-अय्याम-ए-ख़िज़ाँ देता है फूल झड़ते हैं मुँह उस के से हज़ारों मुझ को गालियाँ गर कभी वो ग़ुंचा-दहाँ देता है जान दरवाज़े पर उस के ही मैं जा कर दूँगा इज़्तिराब-ए-दिल अगर मुझ को अमाँ देता है 'मुसहफ़ी' मैं हदफ़-ए-नाज़ हूँ और वाँ ग़म्ज़ा दम-ब-दम दस्त-ए-तग़ाफ़ुल में कमाँ देता है