मुहाजिर हैं रहने को घर माँगते हैं ये क्या हम से अहल-ए-सफ़र माँगते हैं बहुत पी चुके हैं शफ़क़ का लहू हम नया एक जाम-ए-सहर माँगते हैं तिरा नक़्श-ए-पा गर नहीं है तो क्या ग़म हवादिस मिरी रहगुज़र माँगते हैं ग़नीमत हैं टूटे हुए आइने भी ये पत्थर तो दस्त-ए-हुनर माँगते हैं है ज़िंदा क़फ़स में चमन की तमन्ना अज़ाएम मिरे बाल-ओ-पर माँगते हैं नज़ारों के पर्दे उठा कर तो देखो नज़ारे भी हुस्न-ए-नज़र माँगते हैं सबक़ दे रहे थे जो ज़ब्त-ए-अलम का वही 'ताज' सोज़-ए-जिगर माँगते हैं