मुझ को दिमाग़-ए-गर्मी-ए-बाज़ार है कहाँ अफ़्सुर्दगी में लज़्ज़त-ए-गुफ़्तार है कहाँ यारान-ए-मस्लहत में नहीं जौहर-ए-वफ़ा अहल-ए-ग़रज़ में ख़ूबी-ए-किरदार है कहाँ लाखों की भीड़ में भी हूँ सब से अलग-थलग इस शहर में ग़रीब का ग़म-ख़्वार है कहाँ जल्वों को भी है चश्म-ए-तमाशा की जुस्तुजू वो पूछते हैं तालिब-ए-दीदार है कहाँ काँटों में आ गई है गुल-ए-तर की ताज़गी अब लुत्फ़-ए-सैर-ए-वादी-ए-पुर-ख़ार है कहाँ नाकामियों की धूप में जलते हैं दिल-जले सहरा-ए-ग़म में साया-ए-दीवार है कहाँ शौक़-ए-हुसूल-ए-ज़र है तो ज़ौक़-ए-सुख़न न रख नूर-ए-सहर कहाँ है शब-ए-तार है कहाँ दिल्ली की भीड़-भाड़ में गुम हो गया है दिल तन्हा भटक रहा हूँ दिल-ए-ज़ार है कहाँ 'तालिब' ग़म-ए-हयात ने जीना सिखा दिया अब ज़िंदगी का बार मुझे बार है कहाँ