मुझ को कहाँ ये होश तिरी जल्वा-गाह में जल्वे में है निगाह कि जल्वा निगाह में वो क्या निगाह जो न किसी दिल में घर करे वो दिल ही क्या न हो जो किसी की निगाह में मुझ को ज़माने-भर के ग़मों से नजात है जब से है मेरा दिल तिरे ग़म की पनाह में पहले गुनाहगार तमाशा हुई निगाह लज़्ज़त-शरीक फिर हुआ दिल इस गुनाह में निस्बत ही क्या सवाब को मेरे गुनाह से सौ सौ सवाब हैं मिरे इक इक गुनाह में तेरे जमाल-ए-नाज़ का हुस्न-ए-कमाल है ख़ुद जल्वा बन गया हूँ तिरी जल्वा-गाह में आबाद है जहान-ए-वफ़ा उन की याद से बर्बाद हो गए जो मोहब्बत की राह में उठती नहीं निगाह किसी सम्त ऐ 'सहाब' किस हुस्न-ए-बे-बदल के हैं जल्वे निगाह में