मुझ को कोई भी सिला मिलने में दुश्वारी न थी सब हुनर आते थे लेकिन अक़्ल से यारी न थी जिन दिनों इख़्लास में थोड़ी सी अय्यारी न थी हुस्न के दरबार में साबित वफ़ादारी न थी सर-कशी के अहद-नामों की हिफ़ाज़त के लिए मेरे क़ल्ब-ओ-जाँ से बेहतर कोई अलमारी न थी जिन उसूलों के लिए जीना बहुत मुश्किल हुआ उन की ख़ातिर जान दे देने में दुश्वारी न थी हुस्न ही का वो इलाक़ा था जहाँ सब कुछ मिला इश्क़ की अपनी अलग कोई ज़मीं-दारी न थी सब परेशाँ हैं कि आख़िर किस वबा में वो मिरे जिन को ग़ुर्बत के अलावा कोई बीमारी न थी किस तरह बाद-ए-फ़ना से मैं बचा लेता उसे उस ग़ज़ल पैकर में कोई फ़न की चिंगारी न थी रोज़ इक मूज़ी को नेज़े पर उठाता था 'नईम' इंक़िलाबी क़ुव्वतों की जब समझदारी न थी