मुझ को कोई ग़म-ओ-ख़ुशी ही नहीं क्या मिरी कोई ज़िंदगी ही नहीं जब दुआएँ क़ुबूल होने लगीं तब से ये लुत्फ़-ए-बंदगी ही नहीं शौक़ से देखने गए थे तूर और ख़ुदा पे नज़र टिकी ही नहीं हाथ उन का हो हाथ में लिक्खा ऐसी क़िस्मत मेरी लिखी ही नहीं मौत बर-हक़ समझ लिया जिस ने ग़म उसे कोई दाइमी ही नहीं सब बराबर सवाब पाते हैं कोई अव्वल या आख़िरी ही नहीं