मुझ को मंज़ूर है मरने पे सुबुक-बारी हो और अहबाब को है फ़िक्र कफ़न भारी हो ज़िंदगी में न मिला ज़ख़्म-ए-जिगर को मरहम ख़ैर चादर ही मिरी क़ब्र की ज़ंगारी हो याद है रोज़-ए-अज़ल दिल जो गराँ है क्या ग़म मैं ने ख़ुद कह के लिया था कि ज़रा भारी हो आतिश-ए-हुस्न जवानान-ए-चमन भड़का दे जो गुल-ए-सुर्ख़ की पत्ती हो वो चिंगारी हो तेरी रहमत के सहारे पे गिना करता हूँ तर्क कर दूँ अगर इस में भी गुनाह-गारी हो मुझ सियहकार की है मोहर तो उठती नहीं मेहर मेरे अल्लाह न इतनी भी गिराँ-बारी हो आज-कल पास है फिर नक़्द-ए-दिल-ए-ज़ार 'रशीद' फिर किसी ग़ैरत-ए-यूसुफ़ की ख़रीदारी हो