मुझ को मसनद पे क़लमदाँ बख़्शा शेर-ए-क़ालीं को नियस्ताँ बख़्शा पीर-ए-कनआँ' को दिया दाग़-ए-फ़िराक़ एक ज़न को मह-ए-कनआँ' बख़्शा मरज़-ए-इश्क़ में मौत आती है तू ने हर दर्द को दरमाँ बख़्शा क़ाबिल-ए-दीद है हुस्न-ए-हिकमत हूर को रौज़ा-ए-रिज़वाँ बख़्शा क़तरा भी वुसअ'त-ए-रहमत से है बहर चश्म को नूह का तूफ़ाँ बख़्शा दिल-ए-नालाँ को दिए दाग़-ए-फ़िराक़ एक बुलबुल को गुलिस्ताँ बख़्शा दिल-ए-बे-रहम दिया ज़ालिम को जिस तरह तीर को पैकाँ बख़्शा गुल को पुर-ज़र जो गरेबाँ बख़्शा ख़ार को दश्त का दामाँ बख़्शा रहम आया जो गुनहगारों पर गुनह-ए-गब्र-ओ-मुसलमाँ बख़्शा आ गया कुछ जो करीमी का ख़याल हूर को मुल्क-ए-सुलैमाँ बख़्शा तेरी तदबीर है ऐन-ए-तक़दीर मौत को आलम-ए-इम्काँ बख़्शा सुर्ख़-रू अहल-ए-करम को रक्खा बहर को पंजा-ए-मर्जां बख़्शा लब की जा बोसा-ए-रुख़्सार दिया एवज़-ए-ला'ल बदख़्शाँ बख़्शा मुसहफ़-ए-रुख़ का जो देखा कोई शेर रूह-ए-'हाफ़िज़' को भी क़ुरआँ बख़्शा उस से हूँ तालिब-ए-ईमाँ ऐ 'अर्श' जिस ने काफ़िर को भी ईमाँ बख़्शा