मुझ को ता-उम्र तड़पने की सज़ा ही देना तुझ को मंज़ूर अगर हो तो भुला ही देना ऐ ग़म-ए-हिज्र वो तोहमत जो लगाए मुझ पर मेरी बे-लौस मोहब्बत की गवाही देना ये अलग बात कि हो जाऊँ मोहब्बत में तबाह तू न मुझ को कभी एहसास-ए-तबाही देना वो जो मजबूर करें शरह-ए-ग़म-ए-फ़ुर्क़त को अश्क-आमेज़ निगाहों से सुना ही देना उन के दामन को मह-ओ-मेहर से करना मामूर मेरे हिस्से में जहाँ भर की स्याही देना वो जवाँ के कहीं फ़ित्ना-ए-दौराँ न बने हुस्न को फ़ितरत-ए-माशूक़-निगाही देना आज भी याद है ऐ दोस्त इनायत तेरी वो तिरा इतना हँसाना कि रुला ही देना मेरे हर शेर में रूदाद-ए-सितम है उन की ऐ 'ज़फ़र' मेरी ग़ज़ल उन को सुना ही देना