मुझ मस्त को मय की बू बहुत है दीवाने को एक हू बहुत है मोती की तरह जो हो ख़ुदा-दाद थोड़ी सी भी आबरू बहुत है जाते हैं जो सब्र-ओ-होश जाएँ मुझ को ऐ दर्द तू बहुत है मानिंद-ए-कलीम बढ़ न ऐ दिल ये दर्द की गुफ़्तुगू बहुत है बे-कैफ़ हो मय तो ख़ुम के ख़ुम क्या अच्छी हो तो इक सुबू बहुत है क्या वस्ल की शब में मुश्किलें हैं फ़ुर्सत कम आरज़ू बहुत है मंज़ूर है ख़ून-ए-दिल जो ऐ यास अपने लिए आरज़ू बहुत है ऐ नश्तर-ए-ग़म हो लाख तन-ए-ख़ुश्क तेरे दम को लहू बहुत है छेड़े वो मिज़ा तो क्यूँ मैं रोऊँ आँखों में ख़लिश को मू बहुत है ग़ुंचे की तरह चमन में साक़ी अपना ही मुझे सुबू बहुत है क्या ग़म है 'अमीर' अगर नहीं माल इस वक़्त में आबरू बहुत है