मुझ सा बेताब होवे जब कोई बे-क़रारी को जाने तब कोई हाँ ख़ुदा मग़्फ़िरत करे उस को सब्र मरहूम था अजब कोई जान दे गो मसीह पर उस से बात कहते हैं तेरे लब कोई बा'द मेरे ही हो गया सुनसान सोने पाया था वर्ना कब कोई उस के कूचे में हश्र थे मुझ तक आह-ओ-नाला करे न अब कोई एक ग़म में हूँ मैं ही आलम में यूँ तो शादाँ है और सब कोई ना-समझ यूँ ख़फ़ा भी होता है मुझ से मुख़्लिस से बे-सबब कोई और महज़ूँ भी हम सुने थे वले 'मीर' सा हो सके है कब कोई कि तलफ़्फ़ुज़ तरब का सुन के कहे शख़्स होगा कहीं तरब कोई