मुझ से ही मुझ को अब तो मिलाता नहीं कोई इक आइना भी मुझ को दिखाता नहीं कोई क्या जाने क्या हुए वो शराफ़त पसंद लोग अब ख़ैरियत भी उन की बताता नहीं कोई इस ख़ौफ़ में कि खुद न भटक जाएँ राह में भटके हुओं को राह दिखाता नहीं कोई सच्चाइयों के रास्ते सुनसान हो गए भूले से भी यहाँ नज़र आता नहीं कोई हस्सास हैं जो आप तो चेहरे पढ़ा करें ज़ख़्मों को अपने आप दिखाता नहीं कोई नाकामियों की सेज पे बैठा हूँ इस लिए 'ताबाँ' यहाँ से मुझ को उठाता नहीं कोई