मुझ से कहते हैं कि मैं ज़ुल्म सहूँ कुछ न कहूँ By Ghazal << सीने का दाग़ दाग़ फ़रोज़ा... हसरतों का सिलसिला है ज़िं... >> मुझ से कहते हैं कि मैं ज़ुल्म सहूँ कुछ न कहूँ हर्फ़-ए-हक़ सिर्फ़ किताबों में पढ़ूँ कुछ न कहूँ हाँ वही हाथ मिरे जैसों का क़ातिल है मगर मैं उसी हाथ को मज़बूत करूँ कुछ न कहूँ दूसरा कौन जिसे पेश करूँ सर अपना दुश्मन-ए-जाँ ही सही क़द्र करूँ कुछ न कहूँ Share on: