मुझे आगही का निशाँ समझ के मिटाओ मत ये चराग़ जलने लगा है इस को बुझाओ मत मुझे जागना है तमाम उम्र इसी तरह मुझे सुब्ह-ओ-शाम के सिलसिले में मिलाओ मत मुझे इल्म है मिरे ख़ाल-ओ-ख़द में कमी है क्या मुझे आइने का तिलिस्म कोई दिखाओ मत मैं ख़ुलूस-ए-दिल की बुलंदियों के सफ़र पे हूँ मुझे दास्तान-ए-फ़रेब कोई सुनाओ मत मुझे देख लेने दो सुब्ह-ए-फ़र्दा की रौशनी मिरी आँख से अभी हाथ अपना हटाओ मत वही पेड़ है वही शाख़ है वही नाम है जो गिरा है फूल यहाँ से उस को उठाओ मत मुझे तह में जा के उछालने हैं गुहर कई मैं हूँ मुतमइन मुझे डूबने से बचाओ मत तुम्हें बे-मक़ाम रफ़ाक़तों की तलाश है मिरा शहर शहर-ए-सबात है यहाँ आओ मत