मुझे आज़ाद कर दो ना सभी पुर-सोज़ नालों से मिरी ऐ ख़म-ज़दा क़िस्मत दुखों की सख़्त चालों से कहाँ से सब्र लाएँ हम कहाँ अब और जाएँ हम बहुत ही ज़ख़्म पाए हैं अरे इन हुस्न वालों से किसी को सोच कर कैसे किसी की सोच से निकलें बहुत बेचैन रहते हैं कई ऐसे सवालों से ये हम से रूठने वाले मनाए अब नहीं जाते बहुत उक्ता गए हैं हम मनाने के ख़यालों से ख़ुदा का ख़ौफ़ खाओ कुछ डरो उस ज़ात से लोगो मुझे अब मत सताओ नित-नई गहरी ये चालों से कोई ना-मेहरबाँ जब है बनेगा मेहरबाँ कैसे इसी उलझन में उलझे हैं गुज़िश्ता आठ सालों से किसी का कोरे काग़ज़ पर बनाया अक्स था 'काशिफ़' कि ख़ुश्बू अब भी उठती है उसी के काले बालों से