मुझे इस शहर की आब-ओ-हवा अच्छी नहीं लगती

मुझे इस शहर की आब-ओ-हवा अच्छी नहीं लगती
मुसलसल ख़ुद-फ़रेबी की क़बा अच्छी नहीं लगती

इलाही ये मरज़ कैसा लगा मुझ को न जाने क्यों
दुआ अच्छी नहीं लगती दवा अच्छी नहीं लगती

ख़ुशी की भी ख़बर से अब तो दिलचस्पी नहीं मुझ को
कि अब ऐ ज़िंदगी तुझ से वफ़ा अच्छी नहीं लगती

जहाँ के सामने हम को न तुम पहचान पाते हो
तुम्हारी ये अदा हम को ज़रा अच्छी नहीं लगती

मैं ऐसी बज़्म-ए-शोर-ओ-ग़ुल से निकला हूँ कि अब मुझ को
कोई आहट किसी की भी सदा अच्छी नहीं लगती

मैं कहना चाहता हूँ उन से लेकिन कह नहीं पाता
कि मुझ को उन की ख़ू उन की अना अच्छी नहीं लगती

दुआएँ और फ़रियादें फ़लक से लौट आती हैं
ख़ुदा को ग़ालिबन मेरी रज़ा अच्छी नहीं लगती

तू क्यों कहता है सज्दों में मुझे रब उम्र लम्बी दे
मुझे तेरे लबों पर ये दुआ अच्छी नहीं लगती

कभी तेरी सभी नादानियों पर जान देते थे
मगर अब तो तिरी कोई ख़ता अच्छी नहीं लगती

मुझे तुम छोड़ दो इस हाल पर ये हाल अच्छा है
पड़ी है दर्द की ख़ू अब शिफ़ा अच्छी नहीं लगती

उजालों से तो अब 'अफ़रंग' क्या उम्मीद कीजेगा
मगर ये तीरगी हम से ख़फ़ा अच्छी नहीं लगती


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