मुझे तलाश थी जिस की वही कभी न मिली हर एक चीज़ मिली एक ज़िंदगी न मिली तिरी तलाश में पैरों में पड़ गए छाले मगर ऐ मंज़िल-ए-मक़्सूद तू कभी न मिली ख़ुशी से दोस्ती मेरी भी थी मगर इक दिन ख़फ़ा हुई वो कुछ ऐसी के फिर कभी न मिली वो जिस चराग़ के दम से मकान रौशन था उसी चराग़ को ख़ुद अपनी रौशनी न मिली तुम्हारे हिज्र में ऐसा भी वक़्त आया है बदन टटोल के देखा तो नब्ज़ ही न मिली ये जिस्म है के फ़क़त शोर गुल है साँसों का ये आँख है के कोई ख़्वाब देखती न मिली दिल-ओ-दिमाग़ पे हावी रहा ग़म-ए-दौराँ ख़ुशी के साथ भी रह कर मुझे ख़ुशी न मिली मुझे न मिल सका सूरज मिरे मुक़द्दर का तिरा नसीब तुझे मेरी 'चाँदनी' न मिली