मुझे वो खेल-तमाशा दिखाई देता है कहीं भी कोई जो हँसता दिखाई देता है कभी चहकती थीं सदियाँ यहाँ मगर अब तो इक एक लम्हा सिसकता दिखाई देता है हर एक क़तरा-ए-शबनम को उगते सूरज की किरन किरन में अंधेरा दिखाई देता है ब-जुज़ हमारे मुदावा कोई नहीं उस का वो एक दश्त जो तन्हा दिखाई देता है खड़ा हुआ हूँ मैं उस बाम-ए-ज़ीस्त पर कि जहाँ हर एक दर्द शनासा दिखाई देता है सुलगता दश्त है वो अपनी अस्ल में लेकिन निगाह-ए-अस्र को दरिया दिखाई देता है अमीर-ए-शहर के दामन को क्या हुआ 'अरशद' कि सामने से दरीदा दिखाई देता है