मुझी से पूछ रहा था मिरा पता कोई बुतों के शहर में मौजूद था ख़ुदा कोई ख़मोशियों की चटानों को तोड़ने के लिए किसी के पास नहीं तीशा-ए-सदा कोई दरख़्त हाथ उठा कर सलाम करते थे मिरे जुनूँ का मुबारक था मरहला कोई समझ सका न मगर कोई पत्थरों की ज़बाँ हर एक लम्हा लगा बोलता हुआ कोई ये बंद लब हैं कि कोई खुली हुई सी किताब मिरे सवाल पे इस दम तो बोलता कोई वरक़ पे रात के लिक्खी है सुब्ह की तहरीर ये एक वक़्त है बे-रंग-ओ-नूर सा कोई न हर्फ़ हर्फ़ हुआ अक्स-ए-गुफ़्तुगू मेरा समझना चाहो तो ले आओ आईना कोई इक आँसुओं का समुंदर था जल-परी का लिबास मिला तो ऐसे मिला पैकर-ए-वफ़ा कोई हर एक ज़ेहन में अपने ही बंद है 'माजिद' फ़ज़ा के ख़ोल से बाहर है रास्ता कोई