मुझ को गले लगा के हुई ज़िंदगी ख़मोश चुपके से यूँ हयात मिरी चल बसी ख़मोश क़िस्से विसाल के तो किताबों में रह गए पत्तों पे हिज्र की थी कहानी वही ख़मोश सहमे हुए शजर की भी सज्दा-कुशाई थी सज्दा कुनाँ को देख के मिट्टी हुई ख़मोश हाँ हाँ अरे वही वही है मौत जिस का नाम लेने को मुझ को दोस्त मिरी आ गई ख़मोश 'ताहिर' कि पारसाई का दावा नहीं मुझे दीवार-ओ-दर पे बेल की नेकी उगी ख़मोश