मुख़ालिफ़ों के जिलौ में वो आज शामिल था वफ़ा-परस्त रुतों का जो शख़्स हासिल था वो मेरी ज़ात की पहचान भी तआरुफ़ भी मिरे लहू में ब-रंग-ए-हयात शामिल था हसीन रात थी हाथों में हाथ थे हम थे कनार-ए-आब ख़मोशी थी माह-ए-कामिल था तग़य्युरात-ए-ज़माना भी क्या अजब शय हैं जो जाँ-निसार था पहले वो आज क़ातिल था मुझे भी फ़क़्र की दौलत पे फ़ख़्र था यारो उसे भी लाल-ओ-गुहर का ग़ुरूर हासिल था बहुत ही सादा तबीअ'त था उन दिनों 'अरशद' कि जब वो मेहर-ओ-ख़ुलूस-ओ-वफ़ा का क़ाइल था