मुल्क की मिट्टी कभी दिल से जुदा होती नहीं कितना भी मैं तंग कर लूँ माँ ख़फ़ा होती नहीं डाइरी में जो बुज़ुर्गों ने लिखीं थी इबारतें अब अमल के वास्ते उन पर रज़ा होती नहीं वो मिला है जब से मुझ को मौत से लगता है डर उस की शिरकत के बना कोई दुआ होती नहीं है ग़म-ए-फ़ुर्क़त यहाँ तो कुछ ग़म-ए-हस्ती भी है दर्द बढ़ जाता है हद से तो दवा होती नहीं ख़ूब है अंदाज़ उस के रूठने का दोस्तो दिल में है नाराज़ी चेहरे से नुमा होती नहीं ज़िंदगी तो बीत जाती है ये साबित करने में बस ज़रा सा साथ चलना ही वफ़ा होती नहीं एक अर्से से मिरे ज़िंदाँ में ये क़ैद है रूह मेरे जिस्म से 'क़ासिद' रिहा होती नहीं