मुल्क-ए-सुख़न में दर्द की दौलत को क्या हुआ ऐ शहर-ए-'मीर' तेरी रिवायत को क्या हुआ हम तो सदा के बंदा-ए-ज़र थे हमारा क्या नाम-आवरान-ए-अहद-ए-बग़ावत को क्या हुआ गर्द-ओ-ग़ुबार-ए-कूचा-ए-शोहरत में आ के देख आसूदगान-ए-कुंज-ए-क़नाअत को क्या हुआ घर से निकल के भी वही ताज़ा हवा का ख़ौफ़ मीसाक़-ए-हिज्र तेरी बशारत को क्या हुआ