मुमकिन नहीं ख़ुदा के इस इनआ'म के बग़ैर होती कहाँ है शायरी इल्हाम के बग़ैर कुछ इस तरह से ज़िंदगी उस ने बयान की जैसे हो बात मेरी मिरे नाम के बग़ैर हावी मोहब्बतों पे भी ख़ुद-ग़र्ज़ियाँ हुईं मिलता किसी से कौन है अब काम के बग़ैर खेलें भी आग से रहें महफ़ूज़ हाथ भी आग़ाज़ चाहिए तुम्हें अंजाम के बग़ैर क्या क़द्र रौशनी की अंधेरा अगर न हो क्या लुत्फ़ दें मसर्रतें आलाम के बग़ैर