मुंहदिम होती हुई आबादियों में फ़ुर्सत-ए-यक-ख़्वाब होते हम भी अपने ख़िश्त-ज़ारों के लिए आसूदगी का बाब होते शहर-ए-आज़ुर्दा-फ़ज़ा में आबगीनों को ब-रू-ए-कार लाते शाम की इन ख़ानुमाँ वीरानियों में सोहबत-ए-अहबाब होते ताज़ा ओ ग़मनाक रखते आस और उम्मीद की सब कोंपलों को और फिर हमराही-ए-बाद-ए-शबाना के लिए महताब होते ख़ुद-कलामी के भँवर में डूबती परछाईं बन कर रह गए हैं इस अँधेरी रात में घर से निकलते तो सितारा-याब होते ख़ाक-आलूदा ज़मानों पर बरसती झूमती काली घटाएँ मौसमों की आब-ओ-ख़ाक-आराइयों से आइने सैराब होते