मुंजमिद आख़िर है क्यूँ ता-हद्द-ए-मंज़र फैल जा चार जानिब ऐ मिरे ख़ूँ के समुंदर फैल जा मेरी आवारा-मिज़ाजी का रखा तू ने भरम ऐ ग़ुबार-ए-दश्त आ सीने के अंदर फैल जा आ तुझे अपनी नज़र से भी रखूँ महफ़ूज़ मैं शौक़ से मुझ में समा अंदर ही अंदर फैल जा तज़्किरों का ओढ़ जामा ऐ मिरी ज़िंदा-दिली हर नए क़स्बे में जा बस्ती में घर घर फैल जा आह-ओ-ज़ारी छोड़ अपनी ज़ात से बाहर निकल क़हक़हे की गूँज बन कर आसमाँ पर फैल जा