बा'द मुद्दत जो मैं ऐ चर्ख़-ए-कुहन याद आया क्या सितम कोई नया मुश्फ़िक़-ए-मन याद आया शे'र कहता था कि मज़मून-ए-दहन याद आया इक मुअ'म्मा ये दम-ए-फ़िक्र-ए-सुख़न याद आया अहल-ए-दुनिया को किसी दिन न हुई फ़िक्र-ए-अदम क्या मुसाफ़िर हैं कि जिन को न वतन याद आया देख कर अब्र-ए-बहारी मिरी निस्बत बदली सेहन-ए-गुलशन में दिल-ए-तौबा-शिकन याद आया रिश्ता-ए-जाँ में गिरह पड़ गई उलझन के सबब दिल को जब गेसू-ए-पुर-पेच-ओ-शिकन याद आया पा के सर-चश्मा-ए-हैवाँ जो फिर आया उल्टा क्या 'सिकंदर' को तिरा चाह-ए-ज़क़न याद आया मिट गई दिल के न होने से वो दाग़ों की बहार ऐ 'नज़र' वक़्त-ए-ख़िज़ाँ हम को चमन याद आया