मुसाफ़िरान-ए-इश्क़ को वो दश्त वो दयार दे बरहनगी के अहद में जो चादर-ए-ग़ुबार दे सहर की रौशनी में देख ज़िंदगी की मय्यतें ये हादसों का शहर जब लिबास-ए-शब उतार दे न जाने कब से ज़िंदगी को इंतिज़ार है मिरा पता नहीं कहाँ हूँ मैं कोई मुझे पुकार दे ये सच है ज़िंदगी मिरे क़दम की जुम्बिशों में है मगर ज़रा सलीब से कोई मुझे उतार दे खुली हुई हैं जिस्म की तमाम बंद खिड़कियाँ किसी चराग़ से कहो कोई किरन गुज़ार दे मैं कोह कोह दश्त दश्त छोड़ दूँ निशान-ए-पा जुनूँ दिया है गर मुझे जुनूँ पे इख़्तियार दे ये क्या कि दश्त-ए-ज़ीस्त में हर एक सम्त रेत है कहीं तो मौज-ए-आब दे कोई तो आबशार दे तू 'काज़िम'-ए-सफ़ीर-ए-अहद-ए-नौ की बात सुन तो ले फिर उस के बा'द तू उसे मिटा दे या सँवार दे