मुशाहिदा न कोई तजरबा न ख़्वाब कोई तमाम शेर-ओ-सुख़न हर्फ़-ए-इजतिनाब कोई इक इंतिज़ार-ए-मुसलसल में दिन गुज़रते हैं कि आते आते न आ जाए इंक़लाब कोई तमाम अहल-ए-ज़माना शिकार-ए-हिर्स-ओ-हवस करे तो कैसे करे अपना एहतिसाब कोई न इस क़दर ग़म-ओ-ग़ुस्सा को पी के रह जाना कि सब्र-ओ-ज़ब्त की आदत बने अज़ाब कोई तमाम उम्र सवालात पूछने वाले किसे मिला है जो तुझ को मिले जवाब कोई