मुसीबत में भी ग़ैरत-आश्ना ख़ामोश रहती है कि दरवेशों की हाजत तो सदा ख़ामोश रहती है ख़ुशी का जश्न हो या मातम-ए-मर्ग-ए-तमन्ना हो यहाँ हर हाल में ख़ल्क़-ए-ख़ुदा ख़ामोश रहती है शजर को वज्द आता है न तो शाख़ें लचकती हैं बहारों में भी अब बाद-ए-सबा ख़ामोश रहती है मिरी चश्म-ए-तलब में ख़्वाब का हंगामा ख़ेमा-ज़न मगर ताबीर मिस्ल-ए-कज-अदा ख़ामोश रहती है दरून-ए-ख़ाना-ए-दिल रोज़ ओ शब महशर बपा लेकिन ज़बाँ अपनी बराए-तजरबा ख़ामोश रहती है चमक उठते हैं जब चेहरे तब-ओ-ताब-ए-तमन्ना से तो फिर शाइस्तगी-ए-आईना ख़ामोश रहती है मिरे चारों तरफ़ अक्स-ए-तिलिस्म-ए-सामरी रौशन ख़मोशी चीख़ती है और सदा ख़ामोश रहती है लरज़ जाती हैं पलकें अश्क जम जाते हैं आँखों में जब अपनी ख़्वाहिश-ए-बे-साख़्ता ख़ामोश रहती है दरख़्तों की बग़ावत है कि ये मौसम की बे-रहमी कि जंगल आह भरता है हवा ख़ामोश रहती है