मुस्कुराने पे उन्हें किस लिए रुस्वा करते बात ही क्या थी कि जिस बात का चर्चा करते लिखना पड़ती जो कभी उन के सरापा पे ग़ज़ल पहरों तन्हाई में बैठे हुए सोचा करते वो तो यूँ कहिए कि देखा नहीं उन को वर्ना देख लेते जो उन्हें लोग तो देखा करते अब हमें अपनी तबाही में कोई शक न रहा हम ने ख़ुद देख लिया उन को इशारा करते शम्अ' यादों की फ़रोज़ाँ थी फ़रोज़ाँ ही रही तीरगी घर में जो होती तो उजाला करते हम को शोहरत की न ख़्वाहिश न तमन्ना कोई भूल जाते जो हमें लोग तो अच्छा करते हाथ आता जो कभी जिंस की सूरत ऐ दोस्त अहल-ए-फ़न अपने ख़यालों का भी सौदा करते संग और ख़िश्त के बाज़ार में क्यों बैठ गए लोग आईने को किस तरह गवारा करते अपने अहबाब से शिकवा है यही हम को 'सिराज' देर लगती ही नहीं झूटे को सच्चा करते