मुस्तक़िल दीद की ये शक्ल नज़र आई है दिल में अब आप की तस्वीर उतर आई है तू ने किस लुत्फ़ से छेड़ा है उन्हें मौज-ए-नसीम झूम कर ज़ुल्फ़-ए-सियह ता-ब-कमर आई है कह रहे हैं तिरी आँखों के बदलते तेवर ये हँसी आज ब-अंदाज़-ए-दिगर आई है ज़िंदगी नाच कि वो जान-ए-चमन जान-ए-बहार दस्त-ए-रंगीं में लिए साग़र-ए-ज़र आई है दिल हो मसरूर कि आग़ोश-ए-ख़िज़ाँ-दीदा में फिर लहलहाती हुई शाख़-ए-गुल-ए-तर आई है वो ज़-सर-ता-ब-क़दम हुस्न की इक आब लिए जगमगाती हुई मानिंद-ए-गुहर आई है हो न हैराँ कि अँधेरे हैं उजालों की दलील शाम के बा'द ही ऐ दोस्त सहर आई है बन के ग़र्क़ाब सफ़ीने की मचलती हुई याद सीना-ए-बहर पे इक मौज उभर आई है करम-ए-रहबर-ए-सादिक़ के निसार ऐ 'मुज़्तर' ज़िंदगी सख़्त मराहिल से गुज़र आई है