मुट्ठियों में रेत भर ली है बताऊँ किस तरह रात दिन आब-ए-रवाँ से मुँह छुपाऊँ किस तरह रक़्स करते हैं बगूले मेरे तेरे दरमियाँ रेत पर दरियाओं का नक़्शा बनाऊँ किस तरह वो उधर उस पार के मंज़र बुलाते हैं मुझे रौशनी के शहर से पीछा छुड़ाऊँ किस तरह याद सब कुछ है मगर कुछ भी नज़र आता नहीं पुतलियों में तेरे चेहरे को छुपाऊँ किस तरह जब यहाँ इस शहर में सब कुछ ख़िज़ाँ-आसार है बे-दर-ओ-दीवार का इक घर बनाऊँ किस तरह