न अब वो ख़ुश-नज़री है न ख़ुश-ख़िसाली है ये क्या हुआ मुझे ये वज़्अ क्यूँ बना ली है ये हाल है मिरे दीवार-ओ-दर की वहशत का कि मेरे होते हुए भी मकान ख़ाली है दम-ए-नज़ारा मेरी हैरतों पे ग़ौर न कर कि मेरी आँख अज़ल यूँही सवाली है मिरे वजूद को जिस ने जला के राख किया वो आग अब तिरे दामन तक आने वाली है गुज़रती शब का हर इक लम्हा कह गया मुझ से सहर के बाद भी इक रात आने वाली है मुसाफ़िरान-ए-रह-ए-शौक़ थक गए भी तो क्या जहाँ रुके वहीं बस्ती नई बसा ली है