न बाग़ से ग़रज़ है न गुलज़ार से ग़रज़ है भी जो कुछ ग़रज़ तो हमें यार से ग़रज़ फिरते हैं हम तो दीद को तेरे ही दर पे कुछ रस्ते से है न काम न बाज़ार से ग़रज़ कहने से क्या किसी के कोई कुछ कहा करे हम को तो एक उस की है गुफ़्तार से ग़रज़ जी इन दिनों में आप से भी है ख़फ़ा व-लेक बेज़ार जो नहीं है तो दिलदार से ग़रज़ फिर फिर के आज पूछते हो दिल का हाल क्यूँ है ख़ैर तुम को क्या दिल-ए-बीमार से ग़रज़ आने का वादा कर कि न कर हम को अब तिरे इक़रार से न काम न इंकार से ग़रज़ हम को भी दुश्मनी से तिरे काम कुछ नहीं तुझ को अगर हमारे नहीं प्यार से ग़रज़ सर-रिश्ता जिस के हाथ लगा इश्क़ का उसे तस्बीह से न शौक़ न ज़ुन्नार से ग़रज़ दीं-दार जो रखे न 'हसन' मुझ से काम तो काफ़िर हूँ मैं भी रख्खूँ जो दीं-दार से ग़रज़