न बख़्शा गुल को भी दस्त-ए-क़ज़ा ने बहुत मिन्नत-समाजत की सबा ने सफ़र में रहनुमाई के बहाने लगाया बर्क़ ने मुझ को ठिकाने सलासिल तोड़ना मुश्किल नहीं था मुझे रोका सदा अहद-ए-वफ़ा ने सिवा तेरे नहीं कुछ दीदनी है मनाज़िर हैं सभी सदियों पुराने तवाज़ुन रिश्तों में रक्खा है क़ाएम जफ़ा ने आप की मेरी वफ़ा ने