न बस्तियों को अज़ीज़ रक्खें न हम बयाबाँ से लौ लगाएँ मिले जो आवारगी की फ़ुर्सत तो सारी दुनिया में ख़ाक उड़ाएँ हो एक गुलशन ख़िज़ाँ-रसीदा तो काम आए लहू हमारा तमाम आलम में तीरगी है कहाँ कहाँ मिशअलें जलाएँ अगरचे ये दिल-फ़रेब रस्ता भी ख़ार-ज़ारों की अंजुमन है मगर मिरा जी ये चाहता है कि आबले ख़ुद ही फूट जाएँ जहाँ की रंगीनियों की हमराज़ आँख पत्थर बनी हुई है ये हाल अब हो गया है दिल का न रो सकें हम न मुस्कुराएँ ये दश्त बे-रह-रवों की बस्ती ये शहर ज़िंदानियों का मस्कन अगरचे ख़ल्वत-नशीं नहीं हम मगर कहाँ अंजुमन सजाएँ शगुफ़्ता कलियों की दिल की धड़कन उदास लम्हों में सो गई है सुकूत वो छा गया कि हर-सू बहार करती है साएँ साएँ अगरचे 'शहज़ाद' वो निगाहें भी एक मुद्दत से मुंतज़िर हैं मगर जो ख़ुद से छुपा रहे हैं वो ज़ख़्म उन्हें किस तरह दिखाएँ