न बीम-ए-ग़म है ने शादी की हम उम्मीद करते हैं क़लंदर हैं जो पेश आ जाए सब कुछ दीद करते हैं कहाँ का ग़र्रा-ए-शवाल कैसा अश्रा ज़ी-हिज्जा हमें हाथ आए मय जिस दिन हम उस दिन ईद करते हैं मिज़ाज-ए-ख़स है अहल-ए-इश्क़ का जलने के आलम में जलाता है जो इन को उस की ये ताईद करते हैं इरादा तो न था अपना भी जाने का तिरे घर से प क्या कीजे कि बख़्त-ए-वाज़गूँ ताकीद करते हैं ये कासा सर तले रक्खे जो मय-ख़ानों में सोते हैं जिसे चाहें उसे इक जाम में जमशेद करते हैं जिन्हें कुछ सिलसिले में इश्क़ के तहक़ीक़ हासिल है वो कब मजनूँ से हर गुमराह की तक़लीद करते हैं न जाने कहिए किस क़ालिब में 'क़ाएम' दर्द-ए-दिल उस से नहीं बनती ज़बाँ से दिल में जो तम्हीद करते हैं