न भूल पाए तुम्हें हादिसा ही ऐसा था न भर सका कोई उस को ख़ला ही ऐसा था वो मुझ में रह के मुझे काटता रहा पल-पल ज़बाँ पे आ न सका माजरा ही ऐसा था नज़र न आई कहीं दूर दूर तक कोई मौज मैं ग़र्क़ हो गया तूफ़ाँ उठा ही ऐसा था न आया लुत्फ़ किसी और ग़म को झेलने में ग़म-ए-हयात तिरा ज़ाइक़ा ही ऐसा था खुले तो लब मगर अल्फ़ाज़ दोनों सम्त न थे मुकालिमा न हुआ मरहला ही ऐसा था अब उस का रंज भी क्या क्यूँ लहूलुहान हैं पाँव चले थे जिस पे 'ज़फ़र' रास्ता ही ऐसा था