न दरवेशों का ख़िर्क़ा चाहिए न ताज-ए-शाहाना मुझे तो होश दे इतना रहूँ मैं तुझ पे दीवाना किताबों में धरा है क्या बहुत लिख लिख के धो डालीं हमारे दिल पे नक़्श-ए-कल-हज्र है तेरा फ़रमाना ग़नीमत जान जो दम गुज़रे कैफ़ियत से गुलशन में दिए जा साक़ी-ए-पैमाँ-शिकन भर भर के पैमाना न देखा वो कहीं जल्वा जो देखा ख़ाना-ए-दिल में बहुत मस्जिद में सर मारा बहुत सा ढूँडा बुत-ख़ाना कुछ ऐसा हो कि जिस से मंज़िल-ए-मक़्सूद को पहुँचूँ तरीक़-ए-पारसाई होवे या हो राह-ए-रिंदाना ये सारी आमद-ओ-शुद है नफ़स की आमद-ओ-शुद पर इसी तक आना जाना है न फिर जाना न फिर आना 'ज़फ़र' वो ज़ाहिद-ए-बेदर्द की हू-हक़ से बेहतर है करे गर रिंद दर्द-ए-दिल से हाव-हु-ए-मस्ताना