न दौलत की तलब थी और न दौलत चाहिए है मोहब्बत चाहिए थी बस मोहब्बत चाहिए है सहा जाता नहीं हम से ग़म-ए-हिज्र-ए-मुसलसल ज़रा सी देर को तेरी रिफ़ाक़त चाहिए है तिरा दीदार हो आँखें किसी भी सम्त देखें सो हर चेहरे में अब तेरी शबाहत चाहिए है किया है तू ने जब तर्क-ए-तअल्लुक़ का इरादा हमें भी फ़ैसला करने की मोहलत चाहिए है ये क्यूँ कहते हो राह-ए-इश्क़ पर चलना है हम को कहो कि ज़िंदगी से अब फ़राग़त चाहिए है नहीं होती है राह-ए-इश्क़ में आसान मंज़िल सफ़र में भी तो सदियों की मसाफ़त चाहिए है ग़म-ए-जानाँ के भी कुछ देर तो हम नाज़ उठा लें ग़म-ए-दौराँ से थोड़े दिन की रुख़्सत चाहिए है हर इक अपनी ज़रूरत के तहत हम से है मिलता हमें भी अब कोई हस्ब-ए-ज़रूरत चाहिए है है जब से मुनअकिस चेहरा बदलने का वो मंज़र हमारी आइना-आँखों को हैरत चाहिए है जो निकलें आलम-ए-वहशत से फिर कुछ और सोचें ख़िरद से राब्ते रखने को फ़ुर्सत चाहिए है