न दिखाइयो हिज्र का दर्द-ओ-अलम तुझे देता हूँ चर्ख़-ए-ख़ुदा की क़सम मिरे यार को मुझ से न कीजो जुदा तुझे सरवर-ए-हर-दूसरा की क़सम वो सनम कई दिन से है मुझ से ख़फ़ा नहीं आता इधर को ख़ुदा की क़सम दिल-ए-मुशफ़िक़-ए-मन उसे खींच तो ला तुझे जज़्ब-ए-काह-रुबा की क़सम यही चाहे है जी कि गले से लगो ज़रा मेरे दहन से दहन तो मलो नहीं ग़ुर्फ़े से आन के झाँक तो लो तुम्हें अपनी है शर्म-ओ-हया की क़सम कभी शब को अकेला जो पाऊँ तुझे तो गले से फिर अपने लगाऊँ तुझे कभी छाती पे अपनी सुलाऊँ तुझे मुझे इश्क़ के जौर-ओ-जफ़ा की क़सम तिरे उठते ही पहलू में दर्द उठा तिरे जाते ही दम ये अदम को चला मुझे छोड़ के आह तू घर को न जा तुझे अपने ही फ़ुंदुक़-ए-पा की क़सम मुझे बहर-ए-ख़ुदा कहीं उस से छुड़ा तिरे हिज्र की शब है ये काली बला नहीं झूट मैं कहता कुछ इस में ज़रा मुझे तेरी ही ज़ुल्फ़-ए-दोता की क़सम अजी देखो तो कैसी उठी है घटा यही ऐश का दिन है उड़ा ले मज़ा करो बादा-कशी मिरे माह-लक़ा तुम्हें देता हूँ अब्र-ओ-हवा की क़सम अजी जाती है आज तू वस्ल की शब नहीं क्यूँ है मिलाया लबों से ये लब मुझे अब तो उड़ाने दे ऐश तू अब तुझे अपने है मेहर-ओ-वफ़ा की क़सम लगे तेरी बला मुझे आफ़त-ए-जाँ कभू फिर भी ये कह के खिलाएगा पाँ मिरे सर की क़सम मिरी जाँ की क़सम मिरे ग़म्ज़ा-ओ-नाज़-ओ-अदा की क़सम मरें ग़ैर पे आप मैं तुम पे मरूँ मुझे क्या है ग़रज़ कहो क्यूँ मैं जलूँ यही जी मैं है तुम से न बात करूँ मुझे अपनी इस आह-ए-रसा की क़सम किसे देखूँ कहो लगूँ किस के गले शब-ए-वस्ल में मुझ से जो तू ये कहे कि ये बादा-ए-सुर्ख़ तू पी ले तुझे मिरे हाथों के रंग-ए-हिना की क़सम कहाँ जाता है मुँह को छुपाए हुए तिरे हिज्र में जाते हैं हम तो मरे कभी मुड़ के इधर को भी देख तो ले तुझे हज़रत-ए-शेर-ए-ख़ुदा की क़सम सुनो सेरी न हो मुझे खाओ अजी मुझे पीटो जो मुझ को गिराओ अजी मिरे घर से न आज तो जाओ अजी तुम्हें मेरी ही शब की बुका की क़सम मिरे बिछड़े को मुझ से मिलाओ कोई मिरे रूठे को ला के मनाओ कोई अरे यारो तुम उस को बुलाओ कोई तुम्हें ख़ालिक़-ए-अर्ज़-ओ-समा की क़सम