न दिल से आह न लब से सदा निकलती है मगर ये बात बड़ी दूर जा निकलती है सितम तो ये है कि अहद-ए-सितम के जाते ही तमाम ख़ल्क़ मिरी हम-नवा निकलती है विसाल-ओ-हिज्र की हसरत में जू-ए-कम-माया कभी कभी किसी सहरा में जा निकलती है मैं क्या करूँ मिरे क़ातिल न चाहने पर भी तिरे लिए मिरे दिल से दुआ निकलती है वो ज़िंदगी हो कि दुनिया 'फ़राज़' क्या कीजे कि जिस से इश्क़ करो बेवफ़ा निकलती है