न दिन पहाड़ लगे अब न रात भारी लगे न आए नींद तो आँखों को क्या ख़ुमारी लगे ख़ुशी नहीं थी तो ग़म से निबाह कर लेते किसी के साथ तबीअत मगर हमारी लगे कोई न हो कभी अहबाब के करम का शिकार मिरी तरह न किसी दिल पे ज़ख़्म-ए-कारी लगे हमें तड़पता हुआ ग़म में छोड़ने वाले ख़ुदा करे कि तुझे ज़िंदगी हमारी लगे नफ़स नफ़स हमें रोज़-ए-जज़ा से बढ़ कर है वो शौक़ से जिए जिस को हयात प्यारी लगे वो मर न जाए तो फिर और क्या करे ऐ 'शकेब' वजूद अपना जिसे ज़िंदगी पे भारी लगे